Thursday, 11 August 2011

हुस्न का एहतराम और इश्क की खुद्दारी...!

कुछ इस अदा से आज वो पहलू नशीं* रहे
जब  तक  हमारे  पास  रहे  हम  नहीं रहे

या रब किसी के राज-ए-मुहब्बत के ख़ैर हो
दस्ते   जुनूँ*   रहे   न   रहे   आस्तीं   रहे  

मुझको  नहीं  क़ुबूल दो आलम के  वुअसतें*
क़िस्मत में कूए-यार* की दो गज़ ज़मीं रहे

जा और कोई ज़ब्त की दुनिया तलाश कर
ऐ इश्क हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे

अल्लाह रे चश्मे-नाज़ की मोजिज़* बयानियाँ
हर इक को है गुमां कि मुख़तिब* हमीं  रहे    


शब्दार्थ : 
पहलू नशीं =क़रीब, जुनूँ =उन्माद, वुअसतें =विस्तार, कूए-यार =दोस्त की गली, मोजिज़ =चमत्कारिक, मुख़तिब =संबोधित

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