Friday 26 August 2011

देश के कर्णधारों सावधान! कहीं जनता का धैर्य जवाब न दे जाए


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि वे बहुत दुखी हैं क्योंकि लोग उनकी सरकार को देश की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार कह रहे हैं। मनमोहन जी धन्यवाद और आभार। यह खुशी और राहत की बात है कि हमारे देश के मुखिया (अन्ना की भाषा में पंत प्रधान) की संवेदना मरी नहीं, उसे भी दुख और ग्लानि सताती है। यह बातें सुकून देती हैं कि हमारे प्रधानमंत्री को देश, अपनी सरकार की चिंता है। इससे यह तो लगता ही है कि आज नहीं तो कल वे दलों के दलदल और कानूनी पेंचीदगियों से आगे उठ कर अपने दिल और दिमाग की सुनेंगे। गहराई से सोचेंगे कि अन्ना की मांगे वाजिब हैं। दरअसल ये बातें तो खुद उनके विधेयक में आनी चाहिए थीं, ऐसा होता तो न अन्ना को इसके लिए लड़ना पड़ता और न ही सिंह साहब को आज आत्मग्लानि झेलनी पड़ती।
अन्ना की मांग को सरकार तरजीह नहीं दे सकी। सिंह साहब के नेतृत्व में सर्वदलीय बैठक भी इसका निराकरण नहीं कर सकी। हर दल इस आंदोलनों को अपनी तरह से भुनाने में लगा है और अपनी भद भी पिटा रहा है। जो दल अन्ना की उपेक्षा कर रहा है वह जनता से कटता जा रहा है। मनमोहन सिंह जी आप प्रबुद्ध हैं, वरिष्ठ हैं हमारे मान्य और देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्री हैं, हमें आपको अपने देश का कर्णधार पाकर गर्व है। यह ठकुरसुहाती नहीं आपके देश के एक नागरिक की आपके प्रति सच्ची श्रद्धा है। कम से कम आप पर तो अब तक कोई लांक्षन नहीं लगा। आप एक बार सिर्फ एक बार अपने सलाहकारों की बातों और मशविरों को अलग रख कर अपने अंतस से विचार कीजिए कि जो बुजुर्ग रामलीला मैदान में जान की बाजी लगाये बैठा है, वह कहां से और कैसे गलत है। उसने तो न प्रधानमंत्री का पद मांगा न राष्ट्रपति का। वह तो अपने देशवासियों के लिए भ्रष्टाचार मुक्त देश चाहता है वह भी आपके नेतृत्‍व वाली संसद की मदद से।
इसमें कहां और क्या गलत है, इतना पूछने-जानने का हक तो आपके इस सामान्य नागरिक को है। क्या इसका जवाब देंगे प्रधानमंत्री जी। देश एक गंभीर संकट की ओर बढ़ रहा है, कृपया इसे बचा लीजिए। आप ऐसा करेंगे तो पूरा देश आपका आभारी होगा और आपके साथ खड़ा होगा। लोगों की आकांक्षाओं के लिए अगर संविधान भी बदलना पड़े तो बदलिए। नेक इरादे से किया गया हर काम पुण्य और पवित्र होता है। संविधान की अपनी एक गरिमा है लेकिन वह भी तो जनहित के लिए बना है फिर जनहित में उसे एक बार बदलना पड़े तो क्या गलत है। इसमें सर्व सम्मति क्यों नहीं होनी चाहिए। जो इसकी खिलाफत करेगा, साफ है वह जनहित के विरुद्ध खड़ा है। उससे जनता मौका आने पर अपने तरीके से निपट लेगी।
अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक और उनके अनशन के मुद्दे पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हुई सर्वदलीय बैठक का बेनतीजा रहना दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे अन्ना की जान और राष्ट्र का सम्मान दांव पर लग गया है। भारत की दुनिया में अलग पहचान है जो राजनीतिक चालों और दावपेंचों से म्लान और कलुषित हो रही है। बैठक का लब्बोलुआब यह निकला कि संसद सर्वोच्च है। तो हे देश के नीति और दिशा निर्धारको, अन्ना ने कब कहा है कि वे संसद को नहीं मानते। वे भी तो अपना जन लोकपाल विधेयक ( जो आपका सबका होना चाहिए था लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि जिसके हाथों में सत्ता है, वही जनहित से विमुख है) संसद से ही तो पारित कराना चाहते हैं लेकिन आप ऐसा नहीं होने दे रहे। वैसे आपकी महती कृपा कि आप सबको अन्ना की जान की चिंता है, पर उनकी जायज बात मानने की दिशा में कुछ करना नहीं चाहते। पता नहीं इस राह में बाधा क्या है और कहां है। कहीं इस जायज बात को मानने से आपके राजनीतिक स्वार्थों में बाधा तो नहीं पहुंच रही। एक व्यक्ति देश के लिए मर रहा है और आप जो देश का हितैषी होने का दावा कर रहे हैं उससे राजनीतिक दांवपेंच खेल कर उसकी जान संकट में डाल रहे हैं। क्या सोच रहे हैं देश आपको माफ कर देगा। आज नहीं तो कल आपको उसी हिंदुस्तान के सामने वोट की भीख मांगने जाना पड़ेगा जो आपकी अकर्मण्यता और नाकारापन के खिलाफ सड़कों पर उतर आया है।
देश के नेताओं, सांसदों (सत्ता पक्ष- विपक्ष) आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस जनसमर्थन को सीढ़ी बना आप संसद में विराजते हैं, वह आज अन्ना के साथ तन, मन, धन से खड़ा है। जो अन्ना के साथ खड़ा है, वही भारत है, जो उनसे अलग और खिलाफ हैं, वे सुविधाभोगी, मतलबी और मौकापरस्त हैं। माफ कीजिएगा, इन चंद लोगों से भारत नहीं बनता,भारत बनता है उन करोड़ों अन्ना अनुरागियों से जो देश को भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं। आज देश के क्या हालात हैं यह आमजन जानता है। वह आमजन जिसे सामान्य सरकारी सुविधा (जो उसे देना सरकार का परम कर्तव्य है) पाने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ते हैं, अफसरों के आगे गिड़गिड़ाना और अक्सर घूस भी देने को विवश होना पड़ता है। जहां कई मंत्री और उच्च अधिकारी तक भ्रष्टाचार में लिप्त हों वहां आम आदमी की स्थिति कितनी दयनीय हो गयी है,  इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। भगत सिंह, महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस जैसे असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसे भारत का सपना तो नहीं देखा था। अगर आज देश का सीमांत किसान, दलित और आमजन दुखी हैं, सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं तो यह उन वीर शहीदों का अपमान है,  जिन्होंने देश को दासता से मुक्त करने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये।
शासक दंभ करते हैं कि हमारा देश सुपरपावर बनने की दिशा में बढ़ रहा है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी सुचारु स्वास्थ्य सेवा, शिक्षण व्यवस्था यहां तक कि पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं कराया जा सका। कुछ माडल गांवों के लूप में विकसित सौभाग्यशाली गांवों को छोड़ दीजिए। सिर्फ इन गांवों से ही भारत नहीं बनता भारत उन गांवों का भी नाम है जहां सुविधा के नाम पर अभी भी शून्य है। आमजन की सुख-सुविधा की कीमत पर अगर भारत सुपरपावर बनने जा रहा है तो बेहतर है यह नहीं बने। जहां सत्ता सिर्फ और सिर्फ धनपतियों श्रीमंतों की हित चिंतक हो वहां एक न एक दिन जनआक्रोश का ज्वालामुखी जनक्रांति में तो बदलेगा ही। कहीं अन्ना का आंदोलन उस महा अभियान का संकेत तो नहीं। अन्ना वह हस्ती हैं जिनमें अपने आंदोलन को अहिंसक रखने की ताकत है। कहीं यह आंदोलन उनके हाथ से फिसला और जनाक्रोश में बदल गया तो क्या होगा। आदमी के धैर्य की भी एक सीमा होती है। बेहतर है कि वह टूटे इससे पहले उसकी समस्या का निराकरण हो जाये।
आज आधुनिक भीष्म अन्ना जनता के हित को लिए धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं,  ऐसे में उनका कद इतना ऊंचा हो गया है कि उसके आगे हर पद, हर आसन बौना पड़ गया है। जो नेता या सांसद दागदार हैं वे अन्ना के खिलाफ बोलते हैं यह तो समझ में आता है क्योंकि अन्ना के आंदोलन से उनके हितों पर चोट लगती है लेकिन बाकी सांसदों का मानस किस नियम या कायदे का गुलाम है, जो वे अन्ना की बातों पर देश सहमत नहीं हो पाये। सिर्फ हम नहीं कल हिंदुस्तान भी उनसे यह सवाल पूछेगा और जब उसकी बारी आयेगी संभव है वह उनका सत्ता सुख भी छीन ले। उन सांसदों का धन्यवाद जो अपने दल के दलदल में न फंस कर अपना एक अलग सोच रखते हैं जो देश का सोच है। उन्होंने तो अन्ना के हक में खड़ें होने के लिए अपने पद और दल भी छोड़ने तक की पेशकश कर डाली, हम शुक्रगुजार और आभारी हैं उन सांसदों के कि उनकी चेतना मरी नहीं, वे आज भी देश और देशवासियों के हित की बात सोचते हैं। हमारे शासक सांसद अपनी सुविधा के लिए, अपना वेतन बढ़ाने के लिए तो संविधान और कानून से खूब छेड़छाड़ करते हैं, लेकिन जनहित में ऐसा करने में उनके हाथ और दिमाग क्यों बंध जाते हैं। अब वक्त आ गया है कि सत्ता पक्ष-विपक्ष से जुड़े सभी सांसदों को इसका जवाब देना ही होगा। इसके लिए वह एक देशवासी होने के नाते और संसदीय प्रणाली में विश्वास रखने वाले सांसद की तरह बाध्य हैं। आज नहीं तो कल अन्ना की आवाज सुनी जायेगी क्योंकि आज देश का हर सच्चा नागरिक अन्ना बन गया है। अन्ना आज एक व्यक्ति नहीं एक ईमानदार मुहिम का नाम है इतिहास गवाह है ऐसी ईमानदार मुहिम अक्सर कामयाब ही हुई हैं।
लेखक राजेश त्रिपाठी कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। इन दिनों हिंदी दैनिक सन्मार्ग में कार्यरत हैं

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