Sunday, 28 August 2011

निहारना या घूरना...



कल शाम अपनी बिटिया के साथ सब्जी मंडी में एक दुकान पर प्याज छाट रहा था की देखा मेरी बिटिया सब्जी वाले को घूरे जा रही है. सब्जी वाला खरबूजा खाने में मगन था. मेरी बिटिया सब्जी वाले के एकदम बगल में ही खड़ी थी और निसंकोच उसे एकटक घूरे जा रही थी. पता नहीं उसका मन इस चीज के लिए ललचा रहा था या फिर वो सब्जी वाले के खरबूजा खाने के स्टाइल पर आश्चर्य चकित थी. प्याज लेने के बाद मैं बिटिया को लेकर पास में ही खरबूजे बेच रहे दुकानदार के पास गया और बिटिया को खरबूजे दिखाए तो उसने खरबूजों में जरा भी रूचि नहीं ली बाकि उसे लाल तरबूज ज्यादा पसंद आए. मैंने थोडा हिचकते हुए (क्योंकि आजकल जब  तरबूजों की चीनी  कम होती है तो  कृत्रिम उपाय अपना कर उसे बढ़ा दिया जाता है )  एक छोटा लाल चीनी तरबूजा लिया  और घर के लिए वापस लौट आया.

घर लौटते हुए मेरा मन हमारे घूरने की आदत पर ही अटका रहा. मुझे लगता है की कहीं न कहीं घूरने की आदत मानव स्वाभाव का ही एक हिस्सा है जो बाल्यकाल से ही हमारे साथ होता है. जैसे जैसे हम सामाजिक तौर तरीके सीखते जाते हैं या दुसरे शब्दों में कहूँ की हम सभ्य होते जाते हैं तो  हम अपनी इस आदत पर लगाम कसते जाते हैं.  

घूरना  का  एक भाई  भी है जिसे हम कहते हैं निहारना. घूरने और निहारने में क्या अंतर है? इन दोनों में वही अन्तर है जो राम लखन फिल्म के राम और लखन में था.  किसी को घूरना  एक सभ्य समाज में एक बुरी बात समझा जाता है पर आप किसी को भी प्यार से निहार सकते हैं. स्त्रियाँ निहारे जाने को तो पसंद करती हैं पर घूरे जाने को बिलकुल भी पसंद नहीं करती. मेरे एक मित्र निर्दोष भाव से सुन्दर स्त्रियों को निहारना पसंद करते हैं. मैंने उन्हें बताया की आप अपने घर की स्त्रियों को निहार सकते हैं पर परायी नारी  को देखेंगे तो इसे  बुरा समझा जायेगा. इस पर उन्होंने जो सफाई दी वो मुझे बहुत पसंद आयी . उन्होंने कहा की उनके निहारने या घूरने की आदत पर उनका कोई बस नहीं है. सारा कसूर निगाहों का है जो सीधी सपाट और समतल जगहों पर से तो फिसल जाती है पर वक्रता और गोलाई लिए हुए हर चीज पर टिकी रहती है.

उसकी बनियान मेरी बनियान से सफ़ेद कैसे. 


हम भी क़यामत पर नज़र रखते हैं.

लगभग हर पुरुष सुन्दर स्त्री को निहारना पसंद करता है पर ये उसकी बदकिस्मती है की उसका किसी सुन्दर स्त्री को प्रशंसा की निगाह  से निहारना घूरने में परिवर्तित हो जाता है और उस बेचारे को सभ्य समाज के सामने थोड़ी शमिंदगी उठानी पड़ती है. मैं जब भी किसी सार्वजनिक स्थल पर होता हूँ  तो  मेरा समय आसानी से ये देखने में बीत जाता है की कौन आदमी किस को घूर  या निहार रहा है.  ये बहुत मजेदार खेल है. मुझे सबसे ज्यादा तब मजा आता है जब किसी सुन्दर स्त्री को कोई दूसरी स्त्री निहार रही होती है और वो खुद इस बात से बेखबर होती है की कोई और (मेरे जैसा) उसे भी बड़ी तन्मयता से निहारे जा  रहा है.

घूरने और घूरे जाने का ये चक्र बड़ा मजेदार होता है. मैंने कहीं पढ़ा था की स्त्रियाँ बनाव श्रृंगार करती ही निहारे जाने के लिए हैं. अगर आपके बनाव श्रृंगार को देखने वाला कोई न हो तो उसका फायदा ही क्या परन्तु किसी अजनबी द्वारा  घूरा जाने उन्हें पसंद ही नहीं होता. पर यार अगर आप कहीं मीठा रखो और ये सोचो की सिर्फ आपकी पालतू मधुमक्खियाँ ही आयेंगी तो ये आपकी गलती है. हमेशा ये धयान रखो की मीठे पर मधुमक्खियाँ आयें या न आयें गन्दगी पर मंडराने वाली मक्खियाँ जरुर आयेंगी अतः उनसे बचने का कोई न कोई बंदोबस्त हमेशा ही करके चलो.
हमें किसी को घूरने से मिलता क्या है? मैं जब भी खुद को ऐसी स्थितियों में रंगें हाथो पकड़ लेता हूँ तो हमेशा अपनी गिरेहबान में झांक  के  यही सवाल पूछता हूँ की बेटे तुझे मिला क्या.  किसी को चोरी छिपे कनखियों से निहारना  या घुरना मालूम नहीं जाने कौन सा गूंगे का गुड है जो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. हम बरबस ही इस और खिचे जाते है. 

चलो जो भी हो उन सभी लोगों को मेरा प्रणाम जो बेफिक्र हो दूसरों को घूरते हैं और साथ ही साथ एक छोटा सा सन्देश की  

" देखि जां पर छेड़ी ना ".


 इस भाव को अंग्रेज कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं.

प्रस्तुतकर्ता VICHAAR SHOONYA

No comments:

Post a Comment