मेरे एक अफसर हैं जिनकी जैविक घडी शायद सामान्य समय से लगभग ४-५ घंटे देरी से चलती है अतः जो कार्य उन्हें सुबह ६-७ बजे घर पर ही निबटा देना चाहिए उसे वो अक्सर ११-१२ बजे ऑफिस में निबटा रहे होते हैं. सुबह ऑफिस पहुचने के उपरांत मैं जब पहली बार मूत्र विसर्जन हेतु जाता हूँ जो उनके मलालय ( नहीं समझे ... अरे यार मूत्रालय का बड़ा भाई) में मिलने की संभावना का प्रतिशत बहुत उच्च कोटि का होता है (मुझे कहीं से आवाज आ रही है ..... बेटा माँतृ भाषा को तो बक्श दे.. पर ये आवाज कुछ साफ़ नहीं है इसलिए जारी रहता हूँ...)
अपने अफसर को मैं मौखिक हजारी यहीं दे देता हूँ जिसे वो बेहिचक स्वीकार भी कर लेते हैं..लेकिन सिर्फ अंग्रेजी में. शुरू में मैं उन्हें राम राम जी कहता था तो वो नाराज हो जाते थे इस लिए अब गुड मोर्निंग सर से ही काम चलाता हूँ.
मेरे ऑफिस में भारतीय तरीके की लेट्रिन नहीं बल्कि विशुद्ध अग्रेजी तरीके की लेट्रिन बनी हुई हैं जिनमे कुर्सी की तरह बैठा जाता है. मुझे लगता है की मेरे ऑफिस की वो लेट्रिन सीट जहा मेरे भरी भरकम अफसर विराजते हैं अब तक तो उनकी तशरीफ़ के आकार को प्राप्त हो चुकी होगी. भगवान न करे अगर उस टोइलेट में कोई अपराध हो गया तो पुलिस वाले मेरे ऑफिसर को पकड़ लेंगे क्योंकि उनके पिछवाड़े के निशान वहां आसानी से मिल जायेंगे.
वैसे क्या आपने कभी विचार किया है की जैसे बड़े बड़े महापुरुष अपने कदमों के निशान छोड़ जाते हैं वैसे ही वो अपने पिछवाड़े के निशान क्यों नहीं छोड़ जाते. मैंने बहुत से तीर्थों में महापुरुषों के चरण चिन्ह देखे हैं. जब चरणों के निशान इतनी आसानी से मिल जाते हैं तो उनके पिछवाड़े के निशान तो और भी आसानी से मिल जाने चाहिए. वो क्यों नहीं मिलते ? जरा सोचो अगर मिलते तो गाइड हमें बताता "फलां महापुरुष ने इस जगह पर बैठ कर वर्षों कठोर तपस्या की थी और इस वजह से यहाँ पर उनके नितम्ब चिन्ह बन गए. इन्हें शीश नवाइए" और लोग बाग़ श्रद्धावश उन चिन्हों पर अक्षत रोली चढ़ा रहे होते और धुप बत्ती की जा रही होती.
ओहो मैं थोडा भटक गया.. ऑफिस के अंग्रेजी टोइलेट पर वापस आता हूँ.... हाँ तो मैं कह रहा था की मेरे ऑफिस में यूरोपियन मूल के मल-पात्र लगे हुए हैं. इन्हें देख कर मुझे बड़ा अजीब सा महसूस होता है. जब हम लोग एक दुसरे का तौलिया तक इस्तेमाल नहीं करते तो उस मल पात्र को सार्वजनिक रूप से कैसे बाट लेते हैं जो हमारे सबसे गुप्त अंग को अंग लगता है. कई बार लोग इन पात्रों का इस्तेमाल मूत्र त्याग के लिए भी कर लेते है. अगर कोई कोई मल या मुत्रत्यागी अच्छा निशानेबाज न हुआ और अपना सर्वस्व वहां पर बिखेर जाय जहाँ पर व्यक्ति बैठता है तो सोचिये बाद में बैठने वाले की तो हो गयी न ऐसी की तैसी. इसलिए साहब मुझे तो जब भी इन अंग्रेजी मल पत्रों का इस्तेमाल करने की मज़बूरी होती है तो मैं अपना देशी तरीका ही अपनाता हूँ.
मल त्याग का सर्वाधिक सुरक्षित तरीका.
वैसे सुबह के वक्त मूत्रालय में भी शो हाउस फुल चल रहा होता है क्योंकि सुबह की घर की चाय अब तक त्याग दिए जाने की अवस्था को प्राप्त हो चुकी होती है इसलिए मेरे बहुत से सहकर्मी टोइलेट में नेफ्थालिन की बाल्स के साथ मूत्र पोलो खेलते हुए मिल जाते हैं.बचपन में भी हम लोग खुले में पेशाब करते हुए एक जगह पर खड़े होकर गोल गोल घुमने लगते थे. इससे हमारे चारों तरफ एक घेरा बन जाता था. हम बच्चे लोग अक्सर ये शर्त लगते थे की किसका घेरा पूरा गोल और सबसे बड़ा बनेगा. ... उफ़ वो भी क्या दिन थे. ये ऐसे खेल हैं जो सिर्फ पुरुष ही खेल सकते हैं.(....अफ़सोस.... यहाँ पर कट्टर नारीवादी समानता के अधिकार की मांग नहीं कर पाएंगे ). हम भारतीय लोग तो यहाँ भी पिछड़े हुए जीव हैं . देखिये अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कितनी प्रगति कर ली है की मूत्र- पात्र में स्कोर बोर्ड भी लगा दिया हैं.
गूगल पर इन तस्वीरों को खोजते वक्त मुझे अजब गजब तरीकों के मूत्रालय डिजाइनों के दर्शन हुए. इन अंग्रेजों की रचनात्मकता का भी कोई जवाब नहीं. ये लोग जीवन के हर पक्ष को रंगीन बना देते हैं. जरा मुलाहिजा फरमाएं .
एकांत से भयभीत रहने वालों के लिए. |
कलात्मक अभिरुचि रखने वालों के लिए 1 |
कलात्मक अभिरुचि रखने वालों के लिए 2 |
for the mama's boys |
जगह की बचत |
सब कुछ नाप तोल कर करने वालों के लिए |
उत्तर या उत्तर पूर्व दिशा के लिए वास्तु अनुकूलित मूत्र पात्र |
शोले के बिना हाथ वाले ठाकुर के लिए रामू काका द्वारा विशेष रूप से निर्मित मूत्रालय. |
एक अनबुझी प्यास |
पोस्ट कुछ ज्यादा लम्बी हो गयी. सब कुछ सहेजते सहेजते बहुत वक्त लग गया है इसलिए मैं तो चला... वहीँ जहाँ मेरे जैसे त्यागी महापुरुष सुबह श्याम नियमित रूप से जाते हैं.
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