Friday 26 August 2011

बेहतर भविष्‍य के सपने अभी मरे नहीं हैं


बुद्धिजीवी समुदाय से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज को दिशा देगा। एक बेहतर, मानवीय और लोकतांत्रिक समाज के निर्माण में उसकी कारगर भूमिका होगी। लेकिन इस समुदाय के एक हिस्से द्वारा ऐसे तर्क और विचार दिये जा रहे हैं,  जिससे यही बात सामने आ रही है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा संचालित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन तथा जनलोकपाल की मांग बेबुनियाद, गलत तथा संविधान विरुद्ध है। अन्ना के आंदोलन का विरोध ऐसे किया जा रहा है जैसे यह कोई अपराधजन्य कार्रवाई है तथा इसके द्वारा संसद, संविधान, कानून के हमारे भव्य व सर्वोच्च 'लोकतांत्रिक' मन्दिर को ढहा देने की साजिश रची जा रही है।
ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हम इस तर्क व विचार को समझें। सवाल है क्या अन्ना के आन्दोलन ने हमारी संसदीय व्यवस्था के लिए वास्तव में संकट पैदा कर दिया है? यह लोकतांत्रिक ढांचे में पलीता लगा रहा है? अगर इतिहास को देखें तो हमारा अनुभव यही कहता है कि जनता की पहल, उसका हस्तक्षेप तथा उसके आंदोलनों ने हमेशा संसदीय जनतंत्र को मजबूत करने का काम किया है। यदि इस व्यवस्था के लिए संकट आया है तो शासक वर्ग की तरफ से ही आया है। यह शासक वर्ग ही है जिसने अपने संकीर्ण हितों के लिए संसद, संविधान, कानून आदि का इस्तेमाल किया है तथा जनता के ऊपर लोकतंत्र की जगह अपनी तानाशाही को थोपा है। इस सम्बन्ध में उदाहरणों कमी नहीं हैं।
कहा जा रहा है कि जिस जन लोकपाल को संसद में पारित कराने को लेकर आन्दोलन किया जा रहा है, वह निर्वाचित लोगों द्वारा तैयार नहीं है जबकि संसद एक निर्वाचित संस्था है। क्या संसद सिविल सोसायटी के 'अनिर्वाचित' नुमाइन्दों के सामने घुटने टेक दे। तब रघुरमण और निलकेणी की नियुक्ति के बारे में क्या कहा जायेगा? इनकी नियुक्ति किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत की गई है? ये निर्वाचित सांसद नहीं है, यहाँ तक कि ये राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं। ये तो कारपोरेट कम्पनियों के सीइओ हैं। ये किनके हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं, यह जगजाहिर है। सरकार द्वारा रणनीतिक महत्व के पदों पर इनकी नियुक्ति क्या संसदीय व्यवस्था को नष्ट करना तथा कारपोरेट हितों का पक्षपोषण करना नहीं है? ऐसे अनगिनत मामले हैं। वहीं इसके विपरीत नागरिक समाज के कार्यकर्ता सर्वजनिक व्यक्ति हैं। उनके ड्राफ्ट से हमारी सहमति या असहमति हो सकती है। पर उनके  ड्राफ्ट के विचार तो सबके सामने खुलकर आये हैं। देश में इस पर व्यापक चर्चा हुई है, लोग आज भी अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।
यह भी कहा जा रहा है कि अन्ना अपने आमरण अनशन तथा आंदोलन द्वारा दबाव की राजनीति कर रहे हैं। यह 'ब्लैक मेल' है। इस नजर से देखा जाय तो अनशन, भूख हड़ताल, हड़ताल, धरना, घेराव आदि सब 'ब्लैक मेल' ही कहलायेगा जिसका इस्तेमाल मजदूर, किसान और जनता के विभिन्न तबके अपनी माँगों को लेकर करते हैं। लोकतंत्र में आन्दोलन करना, सरकार पर इसके द्वारा दबाव बनाना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। जन आन्दोलनों के प्रति यह नजरिया न सिर्फ अलोकतांत्रिक है बल्कि फासिस्ट भी है।
आज इस बात पर बहस तेज है कि संसद और जनता में सर्वोच्च किसे माना जाय? जनता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजती है। उनका दायित्व बनता है कि वह जनहित के लिए काम करे। क्या लोकतंत्र में जनता का अधिकार मात्र पांच साल में एक बार वोट देने तक सीमित रह जाता है? उसके बाद पांच साल तक वह चुपचाप इन्तजार करे। मैं समझता हूँ ऐसी व्यवस्था संसदीय तानाशाही कहलायेगी, जनतंत्र नहीं। चूँकि यह जनता ही सांसदों व विधायिका को चुनती है। इसलिए उस पर निगरानी रखने, संसद के विविध क्रियाकलाप पर अपना मत जाहिर करने, उस पर आंदोलन और दूसरे तरीके से दबाव बनाने का काम भी जनता का होता है। ऐसे अधिकार उसे संविधान में प्राप्त भी हैं।
इसीलिए जो लोग संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे हैं, वे जनता को संविधान प्रदत अधिकारों से वंचित कर देना चाहते हैं। आखिरकार संसद लोकतंत्र में किसके प्रति जिम्मेदार होता है। जनता के प्रति ही तो। लेकिन आज उसकी जिम्मेदारी क्या है? भले देश की जनता के बड़े हिस्से को बीस रुपये मजदूरी के रूप में बमुश्किल से मिलते हों, पर हमारे प्रतिनिधियों के खर्चे में कोई कमी नहीं आनी चाहिए और अपना वेतन व भत्‍ता बढ़ाने के सवाल पर वे आमतौर पर एकजुट दिखते हैं। फिर हमारे सांसदों के चरित्र को भी देखा जाना चाहिए। आज इनका चरित्र बहुत कुछ सामंतों या कहिए राजाओं जैसा हो गया है। जनसेवक की जगह ये जनता के मालिक बन गये हैं। हकीकत तो यह है कि आज चार सांसद जेल में है तथा दर्जनों पर आपराधिक मुकदमें है।
हमारे बुद्धिजीवी दोस्त इरोम शर्मिला के पिछले दस साल से जारी भूख हड़ताल से बड़ी सहानुभूति जाहिर करते हैं तथा अन्ना के आन्दोलन पर चर्चा करते हुए इसके बरक्स वे इरोम की भूख हड़ताल की बात करते हुए अन्ना के द्वारा इस मुद्दे पर कुछ न किये जाने की आलोचना करते हैं। लेकिन ये इस सवाल पर चुप्पी साधे दिखते हैं कि यही संसद है जिसने विशेष शस्त्र बल (अफ्सपा) जैसा कानून बनाया है,  जिसके विरुद्ध इरोम संघर्षरत है। यही संसद है जिसने तमाम ऐसे कानूनों को संरक्षित कर रखा है जो अंग्रेजों द्वारा बनाये गये। इनके तहत मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह का मुकदमा कायम किया गया। आजतक संसद ने न जाने कितने काले कानून बनाये है। ऐसे ही कानूनों के तहत बिनायक सेन को आजीवन कारावस की सजा दी गई, प्रशान्त राही को जेल भेजा गया तथा आज भी सीमा आजाद,  सुधीर ढावले जैसे अनगिनत लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा जन आन्दोलनों के कार्यकर्ता जेलों में बन्द हैं। क्या झुठलाया जा सकता है कि हमारी संसद कॉरपोरेट हितों तथा नवउदारवादी नीतियों की सबसे बड़ी रक्षक है जिसकी देन भ्रष्टाचार है?
कभी गाँधी जी ने इंगलैंड की संसद की आलोचना करते हुए कहा था कि यह 'बाँझ' और 'बेसवा' है जो उसी का काम करती है जो उसे अपने पास रखे। कभी लेनिन ने जारशाही द्वारा गठित रूसी संसद 'डयूमा' को 'सुअरबाड़ा' कहा था। जो संसद अपने राष्ट्रहित, जनहित के प्रति जिममेदार न हो उसकी स्थिति क्या ऐसी ही नहीं हो जाती। इस रोशनी में हम अपनी संसद को देख सकते हैं। ऐसे में लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिए व्यवस्था में परिवर्तन हो तथा भारतीय समाज भ्रष्टाचार मुक्त बने, यही देश की जनता का सपना है। यह लाखों करोड़ों का सपना ही है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ तथा जन लोकपाल के लिए आन्दोलन के रूप में उमड़ पड़ा है। इसे कोई 'दूसरी आजादी', 'अरब का वसन्त' या 'अगस्त क्रान्ति' नाम दे सकता है लेकिन यह अभी तो शुरुआत है, वह भी स्वतः स्फूर्त। फुनगी से इसे जड़ तक पहुँचाना है। यह लम्बा और कठिन संघर्ष है। संघर्ष और बेहतर भविष्य के सपने मरे नहीं, इसे जिलाये रखना ही आज बौद्धिकों का दायित्व हो सकता है। संसद, संविधान व कानून के नाम पर इस सपने से खेलने को 'बौद्धिक मक्कारी' तथा संसदीय बौनापन ही कहा जायेगा।
लेखक कौशल किशोर एक्टिविस्‍ट हैं, ब्‍लॉगर हैं तथा पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं

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