Saturday, 13 August 2011

सडको पर खर्च होती ज़िन्दगी..




भले ही हमने सड़क पर जन्म नहीं लिया
और पले भी नहीं किसी फुटपाथ पर
पर बिता रहे है बेशकीमती हिस्सा ज़िन्दगी का 

चमकीली पथरीली काली सडको पर
खर्च करते हुए बे-भाव  

अपनी अलसाई सुबहें और धूसर शामें
काला धुँआ सोखते हुए फेफड़ों में 

तकरीबन बहरे हो चुके है
सुन-सुनकर होर्न का चीखना
 तभी तो सड़क पर लहुलूहान
जिस्मों की चीखे नहीं सुनाई देती
सारे आवेग ,कुंठाए ,आक्रोश क्षोभ
रख देते है एक्सीलेटर पर
भागते चले जाते है दिशाहीन से
जाम में फसे हुए चिपट जाते है
प्रेत से आवेग और कुंठाए
 चीखते है बकते  है गालियाँ
मारने दौड़ते अनजान लोगों को
यही सड़क बन जाती है रणक्षेत्र
बलि होते निर्दोष असहाय
सड़क पार करते करते पार कर जाते है
अपने जीवन की रेखा

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