मेरे भीतर से निकलती वे सारी आकर्तियाँ जो मेरी नहीं है, मगर मेरे होने से निरंतर बनती हैं. कुछ तो मेरी हो सकती है, ये तब लगता है जब मैं खुद को भूल कर देखता हूँ उन्हें. कुछ मेरी तब बन जाती है जब मैं खुद को याद करने के लिए देखता हूँ.
मैं "मैं" को कभी ठोस नहीं कर पाया, पर मेरे अंदर से निकलने वाली अकर्तियों ने मुझे मेरे "ठोस मैं" से समझने की कोशिश की. जो मैं कभी नहीं बन पाऊंगा.
अपने "मैं" को हमेशा उसके समक्ष रखना जो "मैं" से लड़ाई में होता है.... ये "मैं" के साथ चैलेन्ज नहीं है?
राकेश
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