Saturday, 26 November 2011

खुद चले आओ या बुला भेजो / आरज़ू लखनवी

खुद चले आओ या बुला भेजो।
रात अकेले बसर नहीं होती॥

हम ख़ुदाई में हो गए रुसवा।
मगर उनको ख़बर नहीं होती॥

किसी नादाँ से जो कहो जाये।
बात वह मुख़्तसर नहीं होती॥

जब से अश्कों ने राज़ खोल दिया।
चार अपनी नज़र नहीं होती॥

आग दिल में लगी न हो जब तक।
आँख अश्कों से तर नहीं होती॥

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