Tuesday, 22 November 2011

भूतों का बनाया मंदिर और गरम जलेबियाँ -- ललित शर्मा





सुबह स्नान ध्यान के पश्चात वृंदावन दर्शन करने का विचार था, ठंडे पानी से स्नान और सुबह की गुलाबी ठंड याद रहेगी। तपोभूमि में सुबह खिचड़ी का प्रात:राश था इसलिए हमने बाहर जाकर नाश्ता करने का विचार बनाया। सुबह-सुबह गर्म जलेबियाँ मिल जाए दूध या दही के साथ तो फ़िर क्या कहने। हम सड़क पर होटल तलाशने लगे जहाँ तई में कोई हलवाई गर्म जलेबियाँ तलता दिख जाए। थोड़ी देर की मेहनत के बाद एक जगह गर्म जलेबियाँ तलता हलवाई दिख ही गया। कहने लगा -"5 मिनट रुकिए बाबूजी, आपको गर्म गर्म बेड़ई के साथ गर्म जलेबियाँ खिलाता हूँ। हमने आधा किलो जलेबी का आर्डर दिया और उससे पाव भर दही का इंतजाम करने कहा। एक लड़का दही ले आया। दही भी उम्दा था, न खट्टा न मीठा, मन माफ़िक स्वाद पाया। मैने और गुरुजी ने डट कर नाश्ता किया। गरमा गरम जलेबियों ने तो क्षूधा शांत करने के साथ तन-मन को आनंद से भर दिया। मैने खुशी से हलवाई को 10 रुपए दिए तो मालिक मेरी तरफ़ देख रहा था। शायद सोच रहा कि हलवाई को भी टिप देकर बिगाड़ने वाले मिल गए।

वहीं से हम ऑटो रिक्शा से वृंदावन की ओर चल पड़े। तपोभूमि से ऑटो रिक्शा का किराया 10 रुपए प्रति सवारी है। वृंदावन पहुंच कर राधे-राधे की मधुर ध्वनि सुनाई दी। ऑटो वाले ने हमे नगर पालिका के पास उतार दिया। वृंदावन में गंदगी चारों ओर बिखरी पड़ी है। कहीं भी हगो मूतो। नगर पालिका का भवन ही सामने से चकाचक दिखाई दे रहा था। तिराहे से हम आगे बढे श्री रंगनाथ जी के मंदिर दर्शन करने के लिए। सड़क दोनो तरफ़ नास्ते के होटल और रहड़ियाँ लगी हैं, सड़क पर आकर होटल वाले ग्राहकों को आमंत्रित करते हैं। श्री रंगनाथ जी के मंदिए पहुंचे तो पुजारियों ने बताया कि अभी दर्शन नहीं होगें। हमने भी सोचा कि कोई बात नहीं। मंदिर का शिल्प ही देख लेगें। हमने मंदिर के गलियारों का एक चक्कर लगाया। काफ़ी पर्यटक यहाँ पहुंचे हुए थे। कुछ गुज्जु भाई बहन डांडिया कर रहे थे। एक गाईड उनके साथ था, वह उन्हे वृंदा राक्षसी के विषय में जानकारी दे रहा था, जिसके नाम पर वृंदावन है। उसे राक्षस जलंधर की पत्नी बताया।

सारे गुज्जु भाई गाईड का प्रवचन सुन रहे थे, हम भी थोड़ी देर खड़े हो गए उनके पास, मुफ़्त का ज्ञान लेने। इतिहास पर बोलते-बोलते गाईड दर्शन पर चले गया। कहने लगा कि दुनिया क्षण भंगुर है। क्या लेकर आए थे जो साथ ले जाओगे। माया-ममता तो ध्यान और प्रभु मिलन के रास्ते में बाधा है। सिर्फ़ एक चीज ही मनुष्य के साथ जाती है वह है उसका कर्म, जो दान करता है वह सुख पाता है। मैं समझ गया था कि पंडे गाईड का जाने का समय हो गया और अब इसे दक्षिणा चाहिए इसलिए वैराग दर्शन दे रहा है। गुज्जु भाई भी अर्ध श्रद्धापूर्वक ज्ञानरंजन कर रहे थे। कुछ माताएं राधे-राधे जप रही थी। बिहारी कहीं दिख नहीं रहे थे। राधे-राधे का संकीर्तन जारी था, जय श्री कृष्ण का उद्घोष गगन गुंजित कर रहा था। पिछले दरवाजे पर भक्त जन दर्शन के लिए कतार लगाए हुए थे। पंडे पुजारी भगवान एवं भक्त की राह का रोड़ा बने हुए थे।

 श्रीरंगनाथ मंदिर का गुंबद
हमने दिव्य चक्षुओं से दर्शन कर पुजारियों को 10-20 की दक्षिणा का झटका दे दिया। भगवान और भक्त के बीच में बाधा उत्पन्न करने वाले को तो दंड तो मिलना ही चाहिए। श्री रंगनाथ मंदिर का मुख्य भाग दक्षिण भारतीय मीनाक्षी मंदिर शैली में बना है। प्रवेश द्वार राजस्थान की जयपुरी शैली में निर्मित है। जोधपुर के लाल पत्थरों पर जालीदार नक्काशी का काम हुआ है। यह उत्तर भारत का सबसे विशाल मंदिर है। श्री रंगनाथ मंदिर में जन्माष्टी के दूसरे दिन नंदोत्सव की धूम रहती है। यहां सुप्रसिद्ध लट्ठामेले का आयोजन होता है। जब भगवान रथ पर विराजमान होकर पश्चिम द्वार पर आते हैं तो लट्ठे पर चढने वाले पहलवान भगवान को दंडवत कर विजय श्री का आशीर्वाद लेते हैं फ़िर लट्ठ पर चढना शुरु करते हैं।35 फ़िट ऊंचे लट्ठ पर जब पहलवान चढते हैं तो ग्वाल बाल उन पर तेल और पानी की बौछार करते हैं। घंटो की रस्साकसी के पश्चात कोई न कोई पहलवान तो विजय श्री प्राप्त कर लेता है। इस रोमांच को देखने के लिए देश विदेश से लोग आते हैं और लट्ठामेले का आनंद उठाते हैं।

मंदिर प्रांगण में
श्री रंगनाथमंदिर का निर्माण सेठ लक्ष्मीचंद ने अपने गुरु आचार्य रंगदेशिकस्वामी की प्रेरणा से कराया था और निर्माण कार्य सन् 1849में पूरा हुआ था।किवदंतीके अनुसार मंदिर का निर्माण पूरा होने और उसमें सामान्य पूजा दर्शन प्रारंभ होने के कुछ ही दिन बाद एक बालक तथा एक बालिका ने रात में स्वामीजीसे स्वप्न में कहा कि आपने सब कुछ तो किया परन्तु हमारे लिए लड्डुओं के भोग की व्यवस्था तो की ही नहीं। बालक-बालिका ने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम गोदा रंगनाथ हैं। प्रात:जागने के बाद स्वामीजीने तुरंत बेसन के लड्डुओं की व्यवस्था कर दी जो आज भी चल रही है।

बाबा साहब (गुरुजी)
दक्षिण भारतीय शैली पर निर्मित वृंदावन का विशाल मंदिर है जिसके मुख्य द्वार का निर्माण राजस्थानी शैली पर आधारित है। मंदिर प्रांगण में लगभग 50फुट ऊंचा स्वर्ण गरूडस्तंभ है। इस मंदिर में पूजा सेवा पारंपरिक वेशभूषा में दक्षिणी ब्राह्मणोंद्वारा की जाती है। हम बेमौसम पहुंचे थे, इसलिए हम लट्ठामेले का आयोजन न देख सके। फ़िर कभी देखेगें। गुरुजी आज बाबा साहब के गेटअप में थे, सिर एक संविधान की हाथ में देने एवं उंगली आसमान की ओर उठाने पर मामला फ़िट हो जाता। गलियारे में खड़े होकर एक फ़ोटो गुरुजी की लेने के बाद हम गोविंद देव जी के मंदिर के दर्शन करने के लिए बढे।

श्री गोविंद देव मंदिर मथुरा
गोविंद देव जी का मंदिर भी जोधपुरी लाल पत्थरों द्वारा निर्मित है। इसकी भव्यता का अंदाजा दूर से ही हो जाता है। किवदन्ती है कि इसे 2100 साल पहले भूतों ने बनाया था। किसी के चक्की चलाने की आहट सुनकर भूत इसे अधुरा छोड़ कर भाग गए। तब से यह मंदिर अधुरा ही है, गाईड बताते हैं कि इस मंदिर की 4 मंजिलों को औरंगजेब ने ध्वस्त करवा दिया था और इसमें जड़े हीरे जवाहरात निकाल ले गया। बताया जाता है कि इस मंदिर में जब दीयों की रोशनी की जाती थी तो दिल्ली तक दिखाई देती थी। इसलिए औरंगजेब ने इसकी 4 मंजिलों को तुड़वाया। मंदिर के गर्भगृह में फ़ोटो लेने की मनाही है। यह मंदिर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सर्वेक्षण में है। इस मंदिर की असली प्रतिमा जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में स्थापित है, यहाँ पर उस मूर्ति की प्रतिकृति स्थापित है। जयपुर का गोविंद देव जी का मंदिर बहुत प्रसिद्ध है।

गोविंद देव मंदिर का संरक्षण के पुर्व का चित्र - गुगल से साभार
गोविंद देव मंदिर से हम बांके बिहारी के दर्शन करने गए। यह मंदिर पुराने शहर के बीचों बीच स्थित है। मंदिर मार्ग भी संकीर्ण है। हमने नगरपालिका के पास से 20 रुपए में रिक्शा किया और बांके बिहारी मंदिर तक पंहुचे। वहां दर्शनार्थियों की भीड़ लगी थी। मंदिर प्रांगण में ही प्रवेश करना बड़ी मशक्कत का काम था। एक दिन पहले पंचकोशी परिक्रमा यात्रा थी, इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ अभी तक मौजुद थी। धक्के मुक्के खाकर हमने गर्भगृह में प्रवेशकर बांके बिहारी जी के दर्शन किए। मंदिर में पुष्पसज्जा देखते ही बनती थी। बांके बिहारी जी की पुष्पसज्जा अलौकिक लगी। अतिसुन्दर, नयनाभिराम। बांके बिहारी जी मंदिर से निकल कर हमने पुन: रिक्शा लिया।

बांके बिहारी मंदिर में दर्शनार्थियों  की भीड़
बस स्टैंड आ गए। क्योंकि समय कम था और आज हमें हरिद्वार के लिए जाना था। दो-तीन रातों की नींद ने घायल कर रखा था। इसलिए तपोभूमि पहुंचकर कुछ देर सोना चाहता था। हम तपोभूमि के लिए ऑटो से चल पड़े। ऑटो वाले ने 15 सवारी चढा ली, मतलब डेढ सौ रुपए का एक ट्रिप। उसने बताया कि खर्चा काट कर रोज 400-500 रुपए कमा लेता है। चर्चा करते हुए तपोभूमि पहुंच कर बिस्तर पर पड़ गया। जैसे ही झपकी आ रही थी वैसे ही आवाज आई - "पायलागी महाराज, सुत गेस का? आँख खोल कर देखा तो तेजराम ने मेरी नींद की वाट लगा दी, आशीर्वाद देने की बजाए उसे जोर से गाली देने की इच्छा हुई, पर क्या करता, खुश रहो, आनंद रहो की ही ध्वनि निकली। आगे चलेगें हरिद्वार की ओर……।

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