Thursday, 8 December 2011

हाय गरीबी





बिन पानी मछली , तडपती है जैसे  |
भूख से तडपती है वैसे , रूहे गरीबी  |
इंसा की ,  इंसानियत को परखकर  ,
डूबती नाव की आस , लगाती है गरीबी  |
सागर में ज्वार जैसे , हिलोरे है लेता |
वैसे पेट में आग , लगाती है गरीबी |
जुबाँ तो हरदम उसके , साथ है रहती |
पर जुबाँ से कुछ न , कह पाती गरीबी  |
पेट की आग जब , तन - मन को जलाती |
बस आसुओं का सैलाब , बहाती है गरीबी |
बंजर धरा को देख , आसमां जब है बरसता |
तब एक सुकून दिल में , ले आती गरीबी |
सागर में बढती नैया को , देख - देखकर ,
खुद में एक विश्वास , जगाती है गरीबी |
सारे प्रयासों को , विफल होता देखकर ,
उसे ही किस्मत ... कह  देती गरीबी |
जिंदगी में अपना नाम , दर्ज करवाकर ,
अपने सफर का अंत , कर देती गरीबी |

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