Monday, 27 February 2012
स्त्री के पक्ष में आए स्त्री
महिला सशक्तिकरण की जब भी बात होती है हमेशा महसूस किया है कि मोर्चे निकालने से बात नहीं बनेगी। अगर कुछ बदल सकता है तो हमारी मानसिकता बदलने से ही। उस मानसिकता को बदलने से जो महिलाओं के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है । हमारी रूढिवादी विचारधाराएं एक समय में सामाजिक नियमन के लिए बनाई गईं श्रृंखलाएं कही जा सकती हैं जिन्हें बनाने में स्त्रीयों की भी भागीदारी तो रही ही होगी। ऐसे में इनसे बाहर आने में भी समाज की आधी आबादी को एक दूसरे के विरूद्ध नहीं साथ खङा होना होगा। इसीलिए हमारे समाज और परिवारों में उपस्थित इस सोच में परिवर्तन लाने का यह सद्प्रयास भी हमारे घरों से ही शुरू होना चाहिए। साथ ही इसकी सूत्रधार भी स्वयं महिलाएं ही हों ।
माँ, बहन, भाभी, ननद या सखी किसी भी रूप में एक महिला का साथ किसी दूसरी महिला के लिए संबल देने वाला भी हो सकता और आत्मविश्वास जगाने वाला भी। ठीक इसी तरह एक स्त्री के मन को ठेस भी किसी दूसरी स्त्री का दुर्व्यवहार ही पहुँचाता है। विशेषकर तब जब उन्हीं परिस्थितियों को जी चुकी एक स्त्री किसी अन्य स्त्री के मन की वेदना समझ ही नहीं पाती या फिर समझना ही नहीं चाहती , ऐसा क्यों ?
बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला है और बदल रहा है, लेकिन एक स्त्री दूसरी स्त्री की पक्षधर बने, उसके हालात समझे और उसके साथ डटी रहे, इस मोर्चे पर महिलाएं कुछ ज्यादा आगे नहीं बढी हैं। जबकि सच तो यह है कि पारिवारिक जीवन से लेकर व्यावसायिक सफलता तक महिलाएं एक दूसरे को कहीं ज्यादा सहायता और संबल दे सकती हैं।
भारतीय समाज को भले ही पुरूष प्रधान समाज कहा जाए पर वास्तविक रूप से हमारे घरों में महिलाओं का दबदबा भी कम नहीं है। विशेषकर उम्रदराज महिलाओं का। ऐसे में घर की बङी उम्र की महिलाएं बतौर माँ एक बेटी का और बतौर सास एक बहू का साथ दें, तो क्या परिवार के अन्य सदस्य उनके खिलाफ जा पायेंगें ? शायद नहीं। घर या बाहर स्वयं स्त्रीयां भी एक दूसरे से सरोकर रखें, अपनी साथी महिला की कुशलता और दक्षता को सराहें, एक दूजे की संघर्ष की साथी बनें तो बहुत कुछ सरलता से बदल भी सकता है और समाज में स्वीकार्यता भी पा सकता है।
हम जरा सोचें कि घर में पोती जन्मे तो दादी उसे गोद में उठा लें, बुआ प्यार-दुलार लुटाए, माँ बिटिया के जन्म से आल्हादित हो और चाची-ताई मंगल गाएं तो उस बेटी को घर में मान-सम्मान मिलेगा या नहीं । घर में मान मिलेगा तो समाज से भी मिलना ही हैं। कुछ इसी तरह अगर एक माँ बेटी का संबल बने और उसके जीवन में कुछ पाने , बन जाने की इच्छाओं को पूरा करने की राह में सदा स्नेह का संबल देती नजर आए तो वो बेटी स्वयं को अकेला क्यों पायेगी...? घर आने वाली नई दुल्हन के सिर पर सासू माँ हाथ रख दें और कहें कि यह उसका अपना घर है। ऐसे में किसी भी नई नवेली दुल्हन को पहले ही दिन सास का साथ और मार्गदर्शन मिल जाए तो क्या बहू के मन में असुरक्षा का भाव आयेगा ? घर से विदा होती ननद को भाभी ही कह दे कि जीवन के हर अच्छे बुरे वक्त में यह घर उसका अपना घर रहेगा। तो क्या पराये घर जाने वाली बेटी को यह महसूस होगा कि उसके अपने अब छूट गये है हमेशा के लिए ? नहीं ना ।
हमारे परिवारों में आज भी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है । ना जाने क्यों यही व्यवहार घर की दूसरी स्त्री के लिए कटु क्यों जाता है ? स्वयं की इस सोच में व्यवहारिक बदलाव लाकर ही महिलाएं घर के पुरुष सदस्यों को भी महिला सदस्यों के प्रति नई सोच दे सकती हैं । एक दूसरे का व्यक्तित्व और अस्तित्व गढ़ने में सहायक हो सकती हैं । परिवार से शुरूआत कर समाज तक स्त्रियाँ अपनी जमीन खुद तलाश सकती हैं, एक दूसरे का साथ देकर । एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो ।
Posted by डॉ॰ मोनिका शर्मा
Wednesday, 22 February 2012
Sunday, 19 February 2012
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